बिना पर्ची का बिल:
औरत होने की छिपी हुई आर्थिक कीमत (Beyond the Paycheck)
नमस्ते दोस्तों! मैं हूँ रोज़ी। आज बात करने बैठी
हूँ तो दिल में एक गाँठ सी है। कल ही बाजार से लौटी थी, मेरी दोस्त प्रिया का फोन आया। आवाज़ में थकान और गुस्सा था। "यार रोज़ी, सोचो तो! मैंने आज एक ही ब्रांड के रेज़र खरीदे – मेरा गुलाबी वाला तुम्हारे
नीले वाले से पचास रुपये महंगा था! बस क्यों? क्योंकि मैं औरत हूँ?" उसकी ये बात सुनकर मुझे अपने
महीने के खर्चे याद आ गए –
सैनिटरी पैड्स, वैक्सिंग, स्किनकेयर, सुरक्षा के लिए ऐप्स का सब्सक्रिप्शन... सब कुछ जोड़ा तो चौंक गई। ये सिर्फ
प्रिया या मेरी बात नहीं है। ये हर उस औरत की कहानी है जो अपनी कमाई से घर चलाती
है, पर जाने-अनजाने उस पर एक 'छुपा हुआ टैक्स' लगा दिया जाता है – सिर्फ इसलिए कि वो औरत है।
हम अक्सर 'जेंडर पे गैप' के बारे में सुनते हैं, जहाँ एक ही काम के लिए औरतों को आदमियों से कम पैसे मिलते हैं। ये बहुत बड़ी
बात है, बिल्कुल। लेकिन आज मैं उन चीज़ों की परतें खोलना चाहती हूँ जो पे स्लिप पर
दिखाई नहीं देतीं। वो छोटे-छोटे खर्चे, वो बड़े-बड़े फैसले जो हमारी जेब पर बोझ डालते हैं और
हमें पीछे धकेलते हैं – सिर्फ इसलिए कि हमारा जेंडर फीमेल है। ये है औरत होने की वो 'हिडन फाइनेंशियल कॉस्ट'
जिसके बारे में खुलकर बात नहीं होती।
1. गुलाबी टैक्स (Pink Tax): सजावट के नाम पर लूट!
प्रिया की बात याद है? यही है पिंक टैक्स। देखने में मासूम, गुलाबी पैकिंग में लिपटा हुआ ये जुर्म कहता है – "औरतें ज़्यादा खर्च करने को तैयार हैं।" सोचो:
बचपन से शुरू: लड़कियों के खिलौने (किचन सेट, बार्बी) अक्सर लड़कों के खिलौनों (कार, कंस्ट्रक्शन सेट) से महंगे होते हैं, भले ही प्लास्टिक एक जैसा हो!
पर्सनल केयर का फर्जीवाड़ा: एक ही कंपनी का शेविंग जेल या डिओडोरेंट – 'वूमन्स वर्जन' हमेशा महंगा। बालों में लगाने वाला एक जैसा शैम्पू, पर 'हर्बल एक्सट्रैक्ट्स वाला' महिलाओं के लिए ज़्यादा पैसे में।
कपड़ों का झमेला: साधारण सफेद टी-शर्ट? अगर उसे 'वूमन्स कट' कहकर बेचा जाए तो दाम बढ़ जाता है। जींस, अंडरगारमेंट्स – हर जगह यही चाल।
ये सिर्फ 10-20 रुपये का फर्क नहीं
है। एक स्टडी के मुताबिक, औरतें आदमियों के मुकाबले लगभग 13% ज़्यादा खर्च करती हैं रोज़मर्रा की चीज़ों पर। साल
दर साल, ये छोटी-छोटी बचतें करोड़ों का फर्क बन जाती हैं जो हमारी बचत, इन्वेस्टमेंट या मन की शांति में जा सकता था। ये है औरत होने का पहला 'हिडन चार्ज'।
2. माँ बनने की कीमत: करियर पर लगा ब्रेक, बैंक बैलेंस पर लगा झटका
माँ बनना जीवन का सबसे सुंदर तोहफा है, इसमें कोई शक नहीं। पर सच ये भी है कि ये तोहफा औरतों को आर्थिक रूप से सबसे
ज़्यादा भारी पड़ता है। ये सिर्फ डिलीवरी के खर्चे की बात नहीं।
मदरहुड पेनल्टी: प्रमोशन मिलने में देरी, सैलरी इनक्रीमेंट पर रोक, या नौकरी ही छूट जाना – ये हकीकत है। 'तुम तो अब बच्चे की देखभाल में बिजी रहोगी' वाली सोच अक्सर हमारे करियर ग्राफ को नीचे गिरा
देती है।
चाइल्डकेयर का पहाड़: क्रेच, आया, डेकेयर – इन सबकी फीस अक्सर औरत की कमाई का बड़ा हिस्सा खा जाती है। कई बार तो इतनी कि
काम करने का मतलब ही नहीं रह जाता! पर सोसाइटी का दबाव होता है – "बच्चा तो माँ की ही ज़िम्मेदारी है।"
लॉन्ग टर्म इफेक्ट – रिटायरमेंट की मार: करियर ब्रेक का मतलब सिर्फ उस वक्त की कमाई का नुकसान
नहीं। इसका असर पड़ता है हमारे EPF, ग्रेच्युटी, पेंशन और निवेश पर। जब हम रिटायर होंगे, हमारा कॉर्पस कम होगा,
क्योंकि हमने कुछ साल कम कमाया और कम कंट्रीब्यूट किया। ये एक ऐसा आर्थिक झटका
है जिसकी भरपाई कर पाना मुश्किल होता है।
ये 'मदरहुड पेनल्टी' सिर्फ एक कॉन्सेप्ट नहीं, ये हमारे बैंक बैलेंस पर सीधा चोट करती है।
3. सुरक्षा का बोझ: आज़ादी की कीमत चुकाना
"रात को अकेले मत जाना।" "ओला या उबर बुक कर लेना।"
"अंधेरी गली से बचकर निकलना।" ये सलाह हर लड़की को बचपन से मिलती है। पर
क्या आपने सोचा इन सलाहों की आर्थिक कीमत क्या है?
ट्रांसपोर्ट का खेल: देर शाम होते ही पब्लिक ट्रांसपोर्ट (बस, ऑटो) छोड़कर कैब बुक करना। ये महीने के खर्चे में
कितना इज़ाफ़ा कर देता है? कई बार सुरक्षित रूट के लिए लंबा चक्कर लगाना पड़ता है, जिससे पैट्रोल/डीजल का खर्च बढ़ जाता है।
'सेफ' लोकेशन का किराया: जिस इलाके में लाइटिंग
अच्छी है, सिक्योरिटी गार्ड हैं,
आसपास की सोसाइटी 'अच्छी' है – उसका किराया या प्रॉपर्टी रेट हमेशा ज़्यादा होता है। सुरक्षा के लिए हमें इस
प्रीमियम को चुकाना पड़ता है।
टेक्नोलॉजी की सहूलियत: पर्सनल सेफ्टी ऐप्स (जो
अलर्ट भेजते हैं), पेपर स्प्रे, व्हिसल्स, सेल्फ डिफेंस क्लासेस –
ये सब खर्चे हैं जो अक्सर हमें अपनी सुरक्षा के लिए अकेले उठाने पड़ते हैं।
सुरक्षा एक बुनियादी जरूरत है, पर औरतों को अक्सर इसे 'खरीदना' पड़ता है। ये खर्च सीधे हमारे 'पेचेक' से कटता है।
4. 'दिखने' का दबाव: ब्यूटी का बोझिल बिल "तुम्हारा हेयर स्टाइल कुछ अजीब लग रहा है।" "ऑफिस में थोड़ा मेकअप कर
लिया करो।" "वैक्सिंग करवा लो, नहीं तो..." – ऐसी टिप्पणियाँ हम सबने सुनी
हैं। सोसाइटी हमसे एक खास तरह से दिखने की उम्मीद रखती है, और इसकी एक मोटी कीमत चुकानी पड़ती है।
मेकअप और स्किनकेयर का ढेर: फाउंडेशन, काजल, लिपस्टिक, सनस्क्रीन, मॉइस्चराइज़र, सीरम... लिस्ट खत्म ही नहीं होती। इनकी क्वालिटी और ब्रांड का दबाव भी रहता
है।
सैलून का सैकेण्ड घर: हेयरकट, कलर, स्ट्रेटनिंग, वैक्सिंग/थ्रेडिंग, मैनीक्योर-पेडीक्योर,
फेशियल... ये रेगुलर खर्चे हैं जो कभी नहीं रुकते। इन्हें 'लग्ज़री' नहीं, बल्कि 'प्रोफेशनल ग्रूमिंग' का हिस्सा माना जाता है।
कपड़ों का दबाव: ऑफिस, पार्टी, कैज़ुअल मीटिंग – हर जगह के लिए अलग अटायर। पुरुष अक्सर एक जैसे
फॉर्मल शर्ट-पैंट में काम चला लेते हैं, पर महिलाओं को 'वैरायटी' दिखानी होती है (ऐसा माना जाता है)।
ये खर्चे 'च्वाइस' नहीं, अक्सर 'एक्सपेक्टेशन'
होते हैं। इन्हें नज़रअंदाज़ करने पर हमें 'अनप्रोफेशनल' या 'बेपरवाह' समझा जा सकता है, जिसका असर हमारे करियर पर भी
पड़ सकता है। ये है सोसाइटी द्वारा थोपा गया 'ब्यूटी टैक्स'।
5. सेहत का खास खर्च: सिर्फ औरत होने की वजह से
हमारा शरीर अद्भुत है, पर उसकी देखभाल पर लगने वाला खर्च भी अद्भुत (और अक्सर अन्यायपूर्ण) है।
महीने का नियमित खर्चा: सैनिटरी पैड्स, टैम्पोन्स, मेंस्ट्रुअल कप्स, पेन किलर्स – ये सब हर महीने का ज़रूरी खर्च है जो सिर्फ महिलाओं को उठाना पड़ता है। इनपर
अक्सर टैक्स भी लगा रहता है (हालांकि अब कुछ कम हुआ है)!
प्रजनन स्वास्थ्य का बोझ: गर्भनिरोधक गोलियाँ या
डिवाइस, प्रेगनेंसी टेस्ट, प्रीनेटल चेकअप, डिलीवरी का खर्च (जो कभी-कभी बहुत ज्यादा होता है), फर्टिलिटी ट्रीटमेंट की अकल्पनीय लागत – ये सब आर्थिक बोझ सीधे औरतों के कंधे पर आता है।
'वूमन्स प्रॉब्लम्स' की अनदेखी: एंडोमेट्रियोसिस,
PCOS, मेनोपॉज के लक्षणों का इलाज – ये ऐसी समस्याएं हैं जिन पर
रिसर्च और इंश्योरेंस कवर अक्सर कम होता है, जिससे इलाज महंगा पड़ता है।
ये कोई 'लाइफस्टाइल च्वाइस' नहीं है। ये बायोलॉजी है। फिर भी, इनके लिए होने वाले खर्चे पूरी तरह हमारी जिम्मेदारी बन जाते हैं।
6. दिमागी बोझ: पैसे की टेंशन से जूझती जान
ऊपर के सारे खर्चे सिर्फ जेब पर भारी नहीं पड़ते। ये
हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर भी भारी पड़ते हैं।
हमेशा सतर्क रहने का
तनाव: बजट बनाना, हर पैसे का हिसाब रखना, कहीं कोई 'पिंक टैक्स' तो नहीं चुका रहे, कहीं सेफ्टी पर कटौती तो नहीं हो रही – ये सब चिंताएं दिमाग में लगातार चलती रहती हैं।
आर्थिक निर्भरता का
डर: करियर ब्रेक या पे गैप की वजह से अक्सर हमें
दूसरों पर निर्भर होने का डर सताता है। ये डर आत्मविश्वास को कमज़ोर करता है।
'परफेक्ट' बनने का प्रेशर: घर, बच्चे, ऑफिस और खुद को 'प्रेजेंटेबल' रखने की कोशिश में खुद के लिए समय और पैसा कम बच पाता है, जिससे थकान और निराशा होती है।
ये तनाव सिर्फ 'फीलिंग्स' नहीं हैं। इसका असर हमारी प्रोडक्टिविटी, हमारे रिश्तों और हमारी समग्र ज़िंदगी की खुशी पर पड़ता है। ये है औरत होने का
सबसे 'हिडन' और दर्दनाक खर्च।
तो अब क्या करें? कुछ रास्ते...
इन चुनौतियों को जानकर हताश होने की जगह, आइए कुछ ठोस कदम उठाने के बारे में सोचें:
1. जागरूक बनो, जागरूक करो: पिंक टैक्स को पहचानो। जेंडर-न्यूट्रल प्रोडक्ट्स
खरीदो। दोस्तों, परिवार के साथ इस बारे में बात करो। अवेयरनेस पहला कदम है।
2. फाइनेंशियल लिटरेसी
है ज़रूरी: बजट बनाना सीखो। इन्वेस्टमेंट की बुनियादी बातें
जानो (FD, म्यूचुअल फंड, स्टॉक मार्किट की एबीसीडी)। रिटायरमेंट प्लानिंग जल्दी शुरू करो – खासकर अगर करियर ब्रेक की उम्मीद हो।
3. बात करो, मांगो, नेगोशिएट करो: ऑफिस में बराबरी की सैलरी की मांग करने से न घबराओ।
घर में कामों और खर्चों की बराबरी की बात उठाओ। पार्टनर के साथ खुले दिमाग से
फाइनेंस पर चर्चा करो।
4. पॉलिसी लेवल पर
बदलाव की मांग: सस्ती और अच्छी क्वालिटी की चाइल्डकेयर सुविधाओं
की मांग करो। मेंस्ट्रुअल प्रोडक्ट्स पर टैक्स पूरी तरह हटाने की मांग करो। वर्क
फ्रॉम होम और फ्लेक्सिबल वर्किंग आवर्स को बढ़ावा देने वाली नीतियों का समर्थन करो।
5. खुद पर भी खर्च करो
(समझदारी से): अपनी सेहत, सुरक्षा और जरूरी ग्रूमिंग पर पैसे खर्चना गलत नहीं
है। पर बेवजह के सोशल प्रेशर में आकर खर्च करने से बचो। अपनी 'वर्थ' सिर्फ आपकी उपस्थिति से है, आपके मेकअप या ड्रेस से नहीं।
निष्कर्ष: कीमत
चुकाना बंद करो, अपनी कीमत पहचानो
दोस्तों, औरत होने की ये 'छिपी हुई आर्थिक कीमत' कोई किस्मत का खेल नहीं है। ये गहराई से जड़ जमाए सामाजिक ढाँचे और पुरुषों को
केन्द्र में रखकर बनी आर्थिक नीतियों का नतीजा है। ये खर्चे हमारे सपनों, हमारी आज़ादी, हमारे भविष्य को धीरे-धीरे कुतरते रहते हैं। पर याद रखो, जागरूकता ही पहला हथियार है। अब हम इन खर्चों को 'नॉर्मल' मानकर चुप नहीं बैठ सकतीं। हमें अपनी आर्थिक ताकत पहचाननी होगी। बजट बनाना
होगा, निवेश करना होगा, मांग करनी होगी, और सबसे बढ़कर, खुद को इस 'छुपे हुए टैक्स' के लायक समझना बंद करना होगा। हम सिर्फ पे स्लिप नहीं हैं। हम वो इंसान हैं जो घर
चलाते हैं, बच्चे पालते हैं, कंपनियाँ चलाते हैं, देश की अर्थव्यवस्था को गति देते हैं। हमारी मेहनत, हमारी सूझबूझ, हमारा हुनर – ये सब हमारी असली कीमत है। आइए, इस छिपी हुई आर्थिक कीमत को पहचानें, उस पर सवाल उठाएं, और उस बोझ को हल्का करने का
रास्ता खोजें। क्योंकि हमारी कमाई सिर्फ बिल भरने के लिए नहीं, बल्कि हमारे सपनों को उड़ान देने के लिए है। खुद पर विश्वास रखो, और आगे बढ़ो!
प्यार और आर्थिक आज़ादी की कामनाओं के साथ,
तुम्हारी
रोज़ी।
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